दानकर्ता दान कीजिए
चौथा तिरुमुरै
113 दशके, 1070 पद्य, 50 मन्दिर
001 तिरुवदिहै वीरट्टाऩम्
 
इस मन्दिर का चलचित्र                                                                                                                   बंद करो / खोलो

 

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काणॊलित् तॊहुप्पै अऩ्बळिप्पाहत् तन्दवर्गळ्
इराम्चि नाट्टुबुऱप् पाडल् आय्वु मैयम्,
५१/२३, पाण्डिय वेळाळर् तॆरु, मदुरै ६२५ ००१.
0425 2333535, 5370535.
तेवारत् तलङ्गळुक्कु इक् काणॊलिक् काट्चिहळ् कुऱुन्दट्टाह विऱ्पऩैक्कु उण्डु.


 
पद्य : 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
पद्य संख्या : 1 पद्य: कॊल्लि

கூற்றாயின வாறு விலக்ககிலீர் கொடுமைபல செய்தன நான்அறியேன்
ஏற்றாய்அடிக் கேஇர வும்பகலும் பிரியாது வணங்குவன் எப்பொழுதும்
தோற்றாதென் வயிற்றின் அகம்படியே குடரோடு துடக்கி முடக்கியிட
ஆற்றேன்அடி யேன்அதி கைக்கெடில வீரட்டா னத்துறை அம்மானே.

कूट्रायिऩ वाऱु विलक्कहिलीर् कॊडुमैबल सॆय्दऩ नाऩ्अऱियेऩ्
एट्राय्अडिक् केइर वुम्बहलुम् पिरियादु वणङ्गुवऩ् ऎप्पॊऴुदुम्
तोट्रादॆऩ् वयिट्रिऩ् अहम्बडिये कुडरोडु तुडक्कि मुडक्कियिड
आट्रेऩ्अडि येऩ्अदि कैक्कॆडिल वीरट्टा ऩत्तुऱै अम्माऩे.
 
इस मन्दिर का गीत                                                                                                                     बंद करो / खोलो

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इस मन्दिर का चित्र                                                                                                                                   बंद करो / खोलो
   

अनुवाद:

1. तिरुवदिकै वीरट्टानम्

राग: कोल्लि


अप्पर स्वामी का जन्म उŸाम शैव परिवार में हुआ था। वे अद्भुत विद्वान एवं विषिष्ट गुणों से संपन्न थे। जैन श्रमणों की तार्किक बुद्धि व उनके सिद्धान्तों से अत्यधिक प्रभावित होकर वे जैन धर्म में दीक्षित हो गये। इससे उनकी बहन तिलकवती तिलमिला गई। वे तिरुवदिकै के मंदिर में प्रतिष्ठित प्रभु से प्रार्थना करती थी कि उनका भाई पुनः जैन धर्म से अपने शैव धर्म में वापस आ जाए। जैन धर्म में दीक्षित होने पर वे धर्मसेन के नाम से प्रसिद्ध हुए। जैनों के समाज में उनका पर्याप्त सम्मान था।

तमिल़नाडु के पाटलिपुत्र में रहते समय अचानक वे उदर-षूल रोग से पीडि़त हुए और असह्य पीड़ा से तड़पने लगे। औषधियों और अन्य उपचारों का कोई प्रभाव नहीं हुआ। निराषा के क्षणों में उन्हें अपनी बहन की याद आईं तब उन्होंने अपनी बहन तिलकवती को संदेष भेजा, परन्तु तिलकवती ने साफ शब्दों में कह भेजा कि वे ‘‘मरुळ तीक्कियार’’ के नाम से आने पर अवष्य उनसे मिलेंगी। यह भी कहला भेजा कि उनको अंततः जैन धर्म को त्यागना पड़ेगा। धर्मसेन इसी शर्त के अनुसार बहन से मिलने गये। बहन ने साक्षात्कार होने पर तिरुवदिकै वीरट्टानम् प्रभु का स्मरण करते हुए अपने अनुज को भस्म (विभूति) धारण करने के लिए दिया। विभूति (भस्म) लगाने से उदर-षूल की पीड़ा धीरे-धीरे दूर होने लगी। उसके बाद अपनी बहन के साथ षिव-मंदिर गए और प्रभु की सेवा की। भगवान् की आज्ञा पाकर उनकी प्रषस्ति में गाने लगे।

केडिलम् नदी-तट पर सुषोभित वीरस्थान नामक मंदिर में प्रतिष्ठित मेरे आराध्यदेव, पूज्य पिताश्री! यह उदर-रोग मेरे लिए काल सम हो गया। उसे आप विनष्ट क्यों नहीं करते? जहाँ तक मुझे ज्ञान है, मैंने कोई गुरुतर अपराध नहीं किया। रात-दिन सदा आपकी वन्दना कर रहा हूँ। आपके श्रीचरणों की आराधना कर रहा हूँ। यह उदर-पीड़ा पेट में नहीं हो रही है, अपितु अतडि़यों में प्रवेष कर अत्यन्त पीड़ा से छटपटा रहा हूँ। मैं आपका दास, इस रोग-पीड़ा को सहन नहीं कर सकता । इस असहनीय पीड़ा से मुझे छुटकारा देकर प्रभु मेरा उद्धार करो।

रूपान्तरकार डॉ.एन.सुन्दरम 2000
சிற்பி