तिरुवाचकम
1-षिवपुराण
( आदि अंत रहित प्राचीन स्वरूप षिव की गाथा)
नमः षिवाय की जय। नाथ के श्रीचरणों की जय।
क्षण-भर के लिए भी मेरे हृदय से विलग न होनेवाले श्रीचरणों की जय।
गोकली के आराध्य गुरुवर भगवान(षिव) के श्रीचरणों की जय।
आगम-स्वरूप भगवान के मधुर श्रीचरणों की जय।
एक भी, अनेक भी, उस ईष के श्रीचरणों की जय।
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चंचलता को विनश्ट कर अपने में आत्मसात करनेवाले प्रभु के श्रीचरणों की जय।
जन्म-मृत्यु के बंधन काटनेवाले, चन्द्र-मुकुट-धारी, नूपुरमय श्रीचरणों की जय।
अपने से दूर रहनेवालों के लिए सदा अदृष्य, सुंदर श्रीचरणों की जय।
कर जोड़कर नमन करनेवालों को, प्रसन्न करनेवाले, महिमा मंडित श्रीचरणों की जय।
नत मस्तक हो प्रार्थना करनेवालों को तारनेवाले, प्रकाषमंडित श्रीचरणें की जय।
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ईष के श्रीचरणों को नमन। पिताश्री के चरणों को नमन।
तेजोमय श्रीचरणों को नमन। षिव के पावन श्रीचरणों को नमन।
नेहमय निर्मल श्रीचरणों को नमन।
मायाप्रद जन्ममुत्यु के बंध विछन्नक, श्रीचरणों को नमन।
पवित्र पेरुन्देरै में विराजमान श्रीचरणों को नमन।
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अतृप्त आनन्दमय पर्वतसम कृपालु भगवान के श्रीचरणों को नमन।
मेरे मन में वह षिव सदा विद्यमान हैं।
उन्हीं की कृपा से उनके चरणों को नमन करते हैं।
जपते हैं षिवपुराण की महिमा को,।
अपने पूर्व कर्मों विनिश्ट होने हेतु, मैं कहता रहूंगा कि,-
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त्रिनेत्र ईष ने अपनी कृपा-कटाक्ष मुझ पर डाली, मैं उनके समक्ष
अज्ञात सौन्दर्य-स्वरूप श्रीचरणों की वन्दना करता हूं।
आकाष और पृथ्वीमंडल के उस पार दिव्यज्योति स्वरूप!
सीमा रहित, विस्तार स्वरूप, तुम्हारी कीर्ति का गुणगान करता हॅूं।
दुश्ट कर्मोें से घिरा मैं आपकी गाथा गा नहीं पाता।
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घास-फूसों में, कीटों-पेडों में, पषु-पक्षियों में, सर्पों में।
पत्थरों में, मनुश्यों में, भूत-पिषाचों में,
देव-दानव, तपस्वियों में,
सृश्टि के जड़-चेतनों में तुम हो।
हे ईष! मैं बारम्बार जन्म लेकर थक गया हंू।
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सत्य स्वरूप तुम्हारे श्रीचरणों को आज पहचाना।
इसी कारण मुझे दिव्यानुभूति मिली,
इस दास के उद्धार हेतु आपने ओंकार के मूल नाद को भर दो,
हे षक्ति-ज्ञान स्वरूप! वृशभ वाहन।
वेदादि ग्रन्थ भी आपको अपना ईष कहते हैं। विषाल व सूक्ष्म मेरे ईष।
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तप-स्वरूप, षीतस्वरूप, पथप्रदर्षक व विमल हो।
मुझको असत्य से दूर करने हेतु आपने असीम कृपा की।
सत्य-ज्ञान तेजोमय, दिव्यज्याति स्वरूप!
मुझ जड़ बुद्धि को परमानन्द प्रदान करनेवाले हे ईष!
अज्ञान को दूर कर ज्ञान को संचरित करनेवाले!
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आदि, अनंत, अगोचर सभी ब्रह्माण्डों के सृजन कर्ता,
रक्षक व विनश्ट करनेवाले हो।
मेरे ऊपर कृपा करो। मेरे दुष्कर्मों का नाष करो। मुझे अपना लो।
पुश्प-गंध स्वरूप् तुम नमन न करनेवालों से दूर,
नमन करनेवालों के निकट रहते हो।
षब्द-मन आदि से परे वेद स्वरूप् ईष,
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गाय के दुग्ध में मिठास और घृत मिश्रित जैसे
भक्तों में मधु मिश्रित रूप में रहनेवाले,
जरा मरण को विनश्ट करनेवाले,
हे मेरे ईष, तुम स्वर्णिम हो, उज्जवल हो, लाल हो, काले हो, नीले हो,
पॉंच भूतों के पंचतत्व स्वरूप! देवगण आपकी स्तुति करते है।।
पर उन्हें भी आप दृश्टिगोचर नहीं होते। अपने को आप अदृष्य रखनेवाले हो
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भयंकर कर्मों से घिरा मैं, स्वयं अपने को नहीं पहचान पा रहा हंू।
अंधकार से घिरा हॅूं, षुभ-अषुभ कर्मरूपी रस्सी से बंधा हंू।
कीटाणुओं तथा मल-मूत्र से भरे इस चर्म से ढका हूं।
नवों द्वार से मल बहनेवाले षरीर रूपी इस घर में।
पंचेन्द्रियॉं मुझे धोखा दे रही हैं, मन पषु बन गया है।
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हे पावन, मैं तुझमें मिलकर, भक्ति रस में रमना चाहता हंू।
मुझमें गुण ही नहीं है, मैं निकृश्ट हूं, मेरे ऊपर आपने कृपा की
इस संसार में अवतरित होकर अपने दिव्य विषाल श्रीचरणों को दिखाया।
खान से भी निकृश्ट मुझ दास पर,
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मॉं से भी बढ़कर कृपा की।
हे सत्य स्वरूप, दिव्य तेजोमय, पुश्प-स्वरूप
सौंदर्य, अमृतमय-मधुमय हे षिव!
संसार बंधन को काटकर मुझे बचानेवाले हे आर्य!
स्नेह से मुझ पर कृपा की है, मन से दुश्ट विचारों को दूर किया है।
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मुझसे अलग न होकर, मेरे मन में अगाध प्रेम-नदी बहायी है।
अतृप्त अमृत-स्वरूप अतुलनीय हे ईष!
स्मरण न करनेवालों के अंदर भी स्थित तेजोमय ईष!
मेरे मन को जल की तरह प्रवाहित करनेवाले मेरे प्रियतम्!
सुख-दुख रहित भी हो, सहित भी हो।
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प्रियपर के प्यारे हो, सर्वस्व तुम हो, नहीं भी हो।
तेजोमय स्वरूपी हो, साथ ही अंधकार स्वरूप भी हो।
तुम अजन्मा हो, आदि, अंत, मध्य से रहित हो,
मुझे अपनी ओर आकृश्ट कर कृपा प्रदान करनेवाले पिताश्री ईष हो।
सूक्ष्म सत्य ज्ञान से तुम पहचाननेवाले भी हो!
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षोध परक तत्वज्ञ हो। सूक्ष्म से सूक्ष्म तुम हो,
जन्म-मृत्यु से परे पवित्र हो।
मेरे संरक्षक महेष, चक्षुज्ञान से परे तेजोमय रूप हो,
पे्रम नदी के प्रवाह हो, मेरे पिता! तुम सबसे बढ़कर हो।
तुम आत्मस्वरूपी हो, दिव्य ज्योतिर्मय, षब्द सीमा से परे हो,
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अबाधगति से परिवर्तनषील इस संसार में भिन्न-भिन्न आकार में, अपने को सूचित करनेवाले हो।
तेज षिरोमणि हो! ज्ञान की पहचान हो, मेरे चित्त में,
सा्रेतवत् बहनेवाली स्वादिश्ट अमृत हो, सर्वस्व तुम हो
जर्जर होनेवाले षरार से आगे जीना नहीं चाहंूगा।
मेरे ईष षिव, षिव पुकारकर-
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तुम्हारी स्तुति करनेवाले, सबने असत्य षरीर को छोड़कर दिव्य रूप पाया।
पुनः इस संसार में आकर जन्म बंधन से बचकर रहना चाहता हंू।
वंचक पंचेन्द्रियों से निर्मित षरीर गठन को विनश्ट करनेवाले मेरे ईष!
अर्द्ध रात्रि में नृत्य करनेवाले मेरे ईष!
तिल्लै के नटराज भगवान्, दक्षिण दिषा के पाण्ड्य नरेष।
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जन्म-बन्धन को काटनेवाले हे मेरे देव!
षब्द सीमा से परे, षिवजी की स्तुति कर, उनके श्रीचरणों का वंदन कर,
आपकी अनुकंपा से रचे इन गीतों का भाव समझकर कहनेवाले-
षिवलोक जायेंगे, षिव के श्रीचरणों में आसीन होंगे।
सभी विनीत भाव से उन्हें नमन करेंगे।
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रूपान्तरकार डॉ.एन.सुन्दरम 1996